18 मिनट पहलेलेखक: शैली आचार्य
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फिल्म दीवार में शशि कपूर अमिताभ की गाड़ी, बंगले और बैंक बैलेंस को कमतर ठहराते हुए कहते हैं, ‘’मेरे पास मां है।’’
इसी तरह मां के मन में भी अपने बच्चों के लिए अनंत प्रेम, सद्भाव और समर्पण होता है। कहते हैं कि मां बनना दुनिया का सबसे खूबसूरत एहसास है। रॉबर्ट ब्राउनिंग ने कहा है कि मातृत्व वह है, जहां से सारा प्रेम शुरु होता है और वहीं खत्म भी।
लेकिन क्या हो अगर कोई महिला इस सुख से वंचित रह जाए। कुछ महिलाएं स्वास्थ्य संबंधी कारणों से तो कुछ अपनी मर्जी से मां नहीं बनती हैं। तो क्या ये महिलाएं कमतर हैं? सामाजिक दकियानूसी पैमानों पर ‘स्वार्थी और अधूरी’। क्या ये बातें सच हैं।
भारत में तेजी से घट रहा बर्थ रेट
आप सोच रहे होंगे कि आज हम अचानक से मां बनने या न बनने की चॉइस के बारे में क्यों बात कर रहे हैं। दरअसल, पिछले कुछ सालों में हमारे देश में बर्थ रेट में गिरावट आई है।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2019-21 में किए गए एक सर्वे के अनुसार, भारत में टोटल फर्टिलिटी रेट (TFR) प्रति महिला 2.2 बच्चों से घटकर 2.0 बच्चे प्रति महिला हो गया है।
यह आंकड़ा रिप्लेसमेंट रेट 2.1 से कम है। दरअसल, रिप्लेसमेंट रेट उस जन्म दर को कहते हैं, जिसमें जन्म और मृत्यु का संतुलन बना रहता है और जनसंख्या स्थिर रहती है। अगर किसी देश का बर्थ रेट रिप्लेसमेंट रेट से कम हो जाए तो वहां की आबादी घटने लगती है।
यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में भारत समेत दुनिया भर के देशों में कम बच्चे पैदा करने पर सवाल उठाए जा रहे हैं। मां नहीं बनने का फैसला करने वाली महिलाओं को सवालों के घेरे में रखा जा रहा है। कंजरवेटिव सेक्शन अबॉर्शन पर भी सख्त कानून बनाने की वकालत कर रहा है। मानो धरती चलाने और वंश बढ़ाने की सारी जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की ही है।
आज ‘रिलेशनशिप’ कॉलम में बात करेंगे मदरहुड की और उन महिलाओं की, जो मां न बन सकीं या जिन्होंने मां न बनने का फैसला लिया।
हमारे समाज में कुछ लोगों का कहना है कि एक महिला औरत तब बनती है, जब वह मां बनती है। क्या इसका मतलब यह है कि जो महिला मां नहीं बन पाती, वो औरत ही नहीं है।
अमेरिका में मेने (Maine) यूनिवर्सिटी में सोशियोलॉजी की प्रोफेसर डॉ. ऐमी ब्लैकस्टोन भी उन्हीं महिलाओं में से एक हैं, जिन्होंने बच्चा न पैदा करने का फैसला किया। इसके बाद उन्हें बहुत ताने भी सुनने पड़े।
डॉ. ऐमी ने इस पर एक किताब भी लिखी है- ‘चाइल्डफ्री बाय चॉइस’।
जब डॉ. एमी लोगों को बताती हैं कि उनके पास बच्चे नहीं हैं और न ही वह चाहती हैं तो लोग उन्हें जजमेंट, दया या निंदा के भाव से देखते हैं।
लेकिन जब बच्चों की बात आती है तो वह ऐसा फैसला लेने वाली अकेली महिला नहीं हैं। आज पूरी दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है, जो संतान की इच्छा नहीं रखते हैं। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों शामिल हैं। वह खुलकर इस बात को स्वीकार कर रहे हैं और इस बारे में बात भी कर रहे हैं। फिर भी यह विकल्प, और इसके व्यक्तिगत और सांस्कृतिक प्रभाव, अभी भी अक्सर गलत समझ लिए जाते हैं।
इस पर दिल्ली की सोशोलॉजी रिसर्च स्कॉलर शिंवागी पटेल क्या कहती हैं, नीचे ग्राफिक में देखें-
संडे टाइम्स, यूके की पूर्व फीचर एडीटर, जानी-मानी पत्रकार और लेखक रूबी वॉरिंगटन ने एक किताब लिखी है– ‘वुमेन विदाउट किड्स: द रेवोल्यूशनरी राइज ऑफ एन अनसंग सिस्टरहुड।’ रूबी पूछती हैं कि क्या हो, अगर बिना बच्चों वाली महिला होना वास्तव में अपनी तरह की विरासत बन जाए?
रूबी इस किताब में अपनी निजी कहानी और यात्रा के बहाने मदरहुड से जुड़े बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक सवालों की पड़ताल करती हैं। वह लिखती हैं कि मां बनने की इच्छा न रखने वाली लड़की के लिए हमारे समाज में कोई आधिकारिक स्थान नहीं है। वह हाशिए पर पड़ी है।
वह लिखती हैं कि बिना बच्चों वाली महिलाओं को दुखी, आत्ममुग्ध बताने की बजाय, क्या हो अगर हम उन्हें साहसपूर्वक देखें और ऐसे ही स्वीकार करें।
क्या मां बने बिना औरत अधूरी है
हमारे समाज में औरत पर मां बनने का दबाव हमेशा से रहा है। उसे समाज को बताना पड़ता है कि वो मुकम्मल है, उसमें कोई कमी नहीं है। भारत में एक महिला से मां बनने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन इसलिए नहीं कि उसे स्वयं मां बनना है। इसलिए क्योंकि मातृत्व उसके कर्तव्यों में शामिल है।
एक मां के रूप में, पति-पत्नी, बच्चों और घर की देखभाल, एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। लेकिन यही चीज उसे एक अच्छी महिला बनाती है। ऐसा वह नहीं मानती, ऐसा समाज कहता है। अकेली मां को या अकेली स्त्री को भी उसके परिवार से परे किसी समुदाय में तभी शामिल किया जाता है, जब वह एक ‘पवित्र महिला’ दिखाई देती है।
बदलाव मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं
कुल मिलाकर समाज अपनी पुरानी रूढ़ियों और बने-बनाए ढर्रे पर ही चलना चाहता है। उसे किसी भी तरह के बदलाव को स्वीकार करने में बहुत मुश्किल होती है। लेकिन इसी के साथ सच यह भी है कि बदलाव ही सृष्टि का अंतिम सत्य है। सबकुछ सतत बदलाव का हिस्सा है।
जैसे एक ही जगह रुका हुआ पानी सड़ जाता है, वैसे ही बदलाव को अस्वीकार करने और वक्त के साथ खुद को बदलने से इनकार करने वाला समाज भी धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है।
महिलाओं का पारंपरिक भूमिका से निकलकर आधुनिक भूमिका में आना भी उसी सतत बदलाव का ही हिस्सा है। आज महिलाएं अगर मदरहुड को No कह रही हैं तो उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अब उन्होंने आर्थिक आजादी का स्वाद चख लिया है। अब वह दो वक्त की रोटी और सिर पर छत के लिए पुरुषों और परिवार की मोहताज नहीं हैं। अब वह अपने पैसे खुद कमा रही हैं, अपना बिल खुद भर रही हैं, अपने सिर पर छत खुद बना रही हैं और अपनी जिंदगी से जुड़े हर छोटे-मोटे फैसले भी खुद ही ले रही हैं।
महिलाएं मातृत्व के विरोध में नहीं हैं। उनका कहना सिर्फ इतना है कि मातृत्व उनके करियर, आजादी और बराबरी की राह में दीवार नहीं बनना चाहिए। मदरहुड सिर्फ अकेले औरत की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए। परिवार और समाज की भी इसमें बराबर की साझेदारी होनी चाहिए।
बदलाव की गति धीमी है, लेकिन यह हो रहा है। समाज के इस बदलाव को स्वीकार करने की गति भी धीमी है, लेकिन वो भी हो रहा है। इसलिए कभी भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए।